Tuesday, 15 July 2014

दिली शब्दे बयां !



दर्दों  में  जकड़े हुए थे हम ,
और इसका इल्म भी नहीं हुआ ,
कि ज़िन्दगी परछाई बनकर सामने मुस्कुरा रही थी ,
खुशहाली का आगाज़ (शरुआत) हो चुका था |
अपनी आशिकी के लम्हों को भूल जाना ,
ऐसा कभी तसव्वुर (सोचाभी नहीं किया था  ,
पर तक़दीर नें जैसे दामन को झिंझोड़ दिया,
 हमारे ज़ामीर को जगा दिया ,
और हम अपनी बेफिक्री की धुनकी में ,
अपनी नुसरत (जीत) की राह पर निकल पड़े ||

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